Kabir Das Ka Jivan Parichay : Education, Early Life, Dohe

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कबीर दास (Kabir Das Ka Jivan Parichay), एक 15वीं सदी के महान भारतीय संत और कवि, भारतीय समाज और साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनका जीवन और शिक्षाएँ धार्मिक और सामाजिक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण योगदान है। कबीर का जन्म एक बुनकर परिवार में हुआ था, लेकिन उनकी आत्मिक यात्रा और ज्ञान ने उन्हें भारत के धार्मिक और सामाजिक परिदृश्य पर अमिट छाप छोड़ने में सक्षम किया। उन्होंने अपने काव्य और उपदेशों के माध्यम से जाति-पाति और धर्म के विभाजन के खिलाफ आवाज उठाई और एक सच्चे और निर्गुण ईश्वर की उपासना की बात की।

कबीर का प्रारंभिक जीवन : (Early Life of Kabir)

  • जन्म स्थान: कबीर दास (Kabir Das Ka Jivan Parichay) का जन्म 1440 ईस्वी के आस-पास काशी (वर्तमान वाराणसी) में हुआ था। उनके जन्म के स्थान और समय को लेकर विभिन्न मान्यताएँ हैं। 
  • परिवार: कबीर का जन्म एक मुस्लिम बुनकर परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम नीमा और नीरू था। कुछ मान्यताओं के अनुसार, उन्हें एक ब्राह्मण विधवा ने जन्म दिया और फिर एक मुस्लिम परिवार ने उन्हें अपनाया।
  • पालन-पोषण: कबीर का पालन-पोषण एक बुनकर परिवार में हुआ, जहाँ उन्हें साधारण जीवन जीने और बुनकरी के काम में प्रशिक्षित किया गया।
  • प्रारंभिक शिक्षा: कबीर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बुनकरी और पारंपरिक धार्मिक शिक्षा से प्राप्त की। उन्होंने धार्मिक ग्रंथों और लोककथाओं का अध्ययन किया।
  • आध्यात्मिक खोज: कबीर के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उन्होंने आत्मा की खोज और ईश्वर की उपासना की दिशा में रुचि विकसित की।
  • गुरु स्वामी रामानंद: कबीर ने स्वामी रामानंद को अपना गुरु मान लिया। उन्होंने रामानंद से निर्गुण ब्रह्म की उपासना और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया।
  • धार्मिक विवाद: कबीर के समय में समाज में धर्म और जाति के भेदभाव गहरे थे। कबीर ने इन विभाजनों को नकारते हुए अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया।
  • प्रारंभिक कविताएँ: कबीर ने अपनी कविताओं और दोहों के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक आलोचनाएँ प्रस्तुत की, जो उनके समय में बहुत प्रभावशाली साबित हुईं।
  • सामाजिक कार्य: कबीर ने समाज में फैले अंधविश्वास और कुरीतियों के खिलाफ भी अपनी आवाज उठाई और धार्मिक सहिष्णुता की ओर समाज को प्रेरित किया।
  • शैशवावस्था: कबीर के शैशवावस्था में उनकी धार्मिक और सामाजिक विचारधारा ने उन्हें एक प्रबुद्ध और विचारशील व्यक्तित्व बना दिया, जो आगे चलकर उनके जीवन और शिक्षाओं का मूल बन गया।

कबीर के गुरु और शिक्षा (Kabir's Guru and Education)

  • गुरु की खोज: कबीर का जीवन आध्यात्मिक खोज और ज्ञान की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर रहा। उन्होंने कई धार्मिक शिक्षाओं और गुरुजनों के माध्यम से आत्मज्ञान की प्राप्ति की कोशिश की।
  • स्वामी रामानंद: कबीर ने स्वामी रामानंद को अपना गुरु मान लिया। स्वामी रामानंद एक प्रसिद्ध संत और भक्ति आंदोलन के नेता थे, जिन्होंने निर्गुण ब्रह्म की उपासना का महत्व बताया।
  • गुरु के प्रति श्रद्धा: कबीर ने स्वामी रामानंद से गहरी श्रद्धा और आदर प्रकट किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में स्वामी रामानंद के विचारों और शिक्षाओं का सम्मान किया।
  • गुरु-शिष्य परंपरा: कबीर ने गुरु-शिष्य परंपरा का अनुसरण किया, जिसमें उन्होंने स्वामी रामानंद से गहन आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की। गुरु की शिक्षाओं ने कबीर की आध्यात्मिक यात्रा को मार्गदर्शित किया।
  • निर्गुण ब्रह्म का अध्ययन: स्वामी रामानंद की शिक्षा के तहत, कबीर ने निर्गुण ब्रह्म (रूपहीन ईश्वर) की उपासना और तत्त्वज्ञान का अध्ययन किया, जो उनकी धार्मिक विचारधारा का मूल था।
  • धार्मिक परंपराओं से परे: कबीर ने अपने गुरु से मिले ज्ञान के माध्यम से धार्मिक परंपराओं और जाति-पाति के भेदभाव से परे जाकर सच्चे धर्म की बात की।
  • साधना और ध्यान: कबीर ने ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मा की खोज की और भगवान के अस्तित्व की गहरी समझ प्राप्त की।
  • स्वतंत्र विचार: कबीर ने गुरु की शिक्षाओं को आत्मसात किया, लेकिन साथ ही उन्होंने स्वतंत्र विचारों और धार्मिक सहिष्णुता की अवधारणा को भी अपनाया।
  • प्रेरणा का स्रोत: स्वामी रामानंद की शिक्षाएँ कबीर के जीवन और कविताओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं, जिन्होंने उन्हें समाज में धार्मिक और सामाजिक सुधारक के रूप में स्थापित किया।

कबीर की धार्मिक मान्यताएँ (Religious Beliefs of Kabir)

  • निर्गुण ब्रह्म: कबीर का सबसे प्रमुख धार्मिक सिद्धांत निर्गुण ब्रह्म (रूपहीन ईश्वर) की उपासना था। उन्होंने कहा कि ईश्वर को किसी विशेष रूप या रूप में नहीं समझा जा सकता और वह सभी जीवों में व्याप्त है।
  • धर्म और जाति का भेदभाव: (Kabir Das Ka Jivan Parichay)कबीर ने धर्म और जाति के भेदभाव को नकारा। उनका मानना था कि धर्म केवल एक आंतरिक अनुभूति है और जाति-पाति का समाज पर कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए।
  • सच्ची भक्ति: कबीर ने सच्ची भक्ति और ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण को महत्व दिया। उन्होंने कहा कि सच्ची भक्ति किसी भी धार्मिक कर्मकांड या बाहरी आडंबर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
  • धार्मिक सहिष्णुता: कबीर ने विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता का संदेश दिया। उन्होंने सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखा और धार्मिक एकता की बात की।
  • अंधविश्वास का विरोध: कबीर ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों का विरोध किया। उन्होंने साधारण और तर्कसंगत जीवन जीने की बात की और अंधविश्वास से दूर रहने की सलाह दी।
  • गुरु की भूमिका: कबीर ने गुरु को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना। उनका मानना था कि सच्चे गुरु की शिक्षा से आत्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और जीवन की सच्चाई को समझा जा सकता है।
  • ईश्वर की उपासना का सरल तरीका: कबीर ने ईश्वर की उपासना को सरल और सहज माना। उन्होंने पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों को अनावश्यक बताया और आंतरिक भक्ति पर जोर दिया।
  • धार्मिक स्वरूप की अस्थिरता: कबीर ने धार्मिक स्वरूप को अस्थिर और भ्रामक बताया। उन्होंने कहा कि ईश्वर का सच्चा स्वरूप केवल अनुभव के माध्यम से ही जाना जा सकता है, न कि धार्मिक ग्रंथों या बाहरी प्रतीकों के माध्यम से।

कबीर का साहित्यिक योगदान (Kabir's Literary Contribution)

  • साखी: कबीर की साखियाँ उनकी साहित्यिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये छोटी-छोटी कविताएँ या पद होते हैं जो जीवन के विभिन्न पहलुओं, आध्यात्मिकता, और सामाजिक मुद्दों पर आधारित होती हैं। साखियाँ सरल और प्रभावशाली भाषा में लिखी गई हैं, जो आम जनमानस के लिए समझने योग्य हैं।
  • दोहे: कबीर के दोहे उनकी काव्य कला का एक प्रमुख रूप हैं। ये दोहे जीवन की सच्चाइयों, धार्मिक भ्रामकता, और आंतरिक आत्मज्ञान पर आधारित होते हैं। कबीर के दोहे संक्षिप्त और प्रभावी होते हैं, जो गहन विचारों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं।
  • सबद: कबीर के सबद भी उनकी साहित्यिक कृतियों का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सबद अधिक विस्तृत होते हैं और अक्सर भक्ति या ध्यान के विषय पर होते हैं। ये रचनाएँ ईश्वर के प्रति भक्ति और साधना की गहराई को व्यक्त करती हैं।
  • रमैनी: कबीर की रमैनी उनकी रचनाओं का एक अन्य रूप है, जिसमें उन्होंने जीवन और भक्ति के विषयों पर लंबी कविताएँ लिखीं। रमैनी में कबीर ने प्रेम, मानवता, और आध्यात्मिक ज्ञान को विस्तृत रूप से व्यक्त किया।
  • साहित्यिक शैली: कबीर की साहित्यिक शैली अत्यंत सरल और सहज थी। उनकी रचनाएँ आम भाषा में थीं, जिससे वे आम लोगों के लिए आसानी से समझ में आती थीं। उनकी कविताओं की शैली में गहरी भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति होती है।
  • भक्ति आंदोलन का योगदान: कबीर का साहित्य भक्ति आंदोलन में एक महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने भक्ति और प्रेम की अवधारणा को अपनी कविताओं में साकार किया और धार्मिक भेदभाव को नकारते हुए एकता का संदेश दिया।
  • समाजिक और धार्मिक आलोचना: कबीर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज और धर्म की आलोचना की। उन्होंने अंधविश्वास, जाति-पाति के भेदभाव, और धार्मिक कर्मकांडों पर कटाक्ष किया और सच्चे धर्म की बात की।

कबीर के प्रमुख दोहे (Famous Dohe of Kabir)

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न होय।”

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब मैंने बुराई की खोज की, तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने दिल की जांच की, तो मैंने पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है। यह दोहा आत्म-निरीक्षण और आत्मस्वीकृति की बात करता है।

“साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भुखा जाए।”

अर्थ: कबीर अपने ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं कि वे इतना दें कि उनका परिवार पूरी तरह से तृप्त रहे और वे खुद भी भूखे न रहें। साथ ही, साधु भी भूखा न रहे। यह दोहा जीवन की आवश्यकताओं की संतुलन की बात करता है।

“कस्तूरी कुंडल बिंदो, फिरे खादे वन माहि।
तस बिन घुमे मय, तो मैं और देखे काईं।”

अर्थ: कबीर इस दोहे में बताते हैं कि कस्तूरी (मस्क) मृग के नथुनों में रहती है और वह इसे खोजने के लिए पूरे जंगल में भटकता है। उसी प्रकार, आत्मा भी अपने असली स्वरूप को खोजने के लिए भटकती है। यह दोहा आत्मा की खोज और उसकी गहराई की बात करता है।

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”

अर्थ: कबीर कहते हैं कि कई लोग किताबें पढ़कर मर जाते हैं, लेकिन वे विद्वान नहीं बन पाते। असली विद्वान वही है जो “प्रेम” के ढाई अक्षर को समझे और आत्मसात करे। यह दोहा प्रेम और ज्ञान की महत्वता को दर्शाता है।

कबीर की सामाजिक सुधारक की भूमिका (Kabir as a Social Reformer)

  • जाति और धर्म का भेदभाव समाप्त करना: कबीर ने जाति और धर्म के भेदभाव को नकारा। उन्होंने कहा कि सभी मनुष्य समान हैं और जाति-पाति का समाज पर कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए। उनके अनुसार, धार्मिक और जातिगत भेदभाव केवल मानव द्वारा निर्मित हैं और इनका वास्तविक धर्म से कोई संबंध नहीं है।
  • अंधविश्वास का विरोध: कबीर ने अंधविश्वास और धार्मिक कर्मकांडों की आलोचना की। उन्होंने लोगों को अंधविश्वास और बाहरी आडंबरों से दूर रहने की सलाह दी और सच्चे धर्म की खोज की बात की। उनकी कविताएँ अंधविश्वास और धार्मिक आडंबरों के खिलाफ एक स्पष्ट संदेश देती हैं।
  • सच्ची भक्ति का महत्व: कबीर Kabir Das Ka Jivan Parichay ने सच्ची भक्ति और ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण की महत्वपूर्णता पर जोर दिया। उन्होंने बताया कि भक्ति केवल धार्मिक कर्मकांडों और पूजा-पाठ में नहीं होती, बल्कि यह आत्मिक सच्चाई और ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा में होती है।
  • धार्मिक सहिष्णुता: कबीर ने विभिन्न धर्मों के बीच सहिष्णुता और एकता का संदेश दिया। उन्होंने सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखा और धार्मिक एकता की दिशा में कार्य किया। उनका साहित्य विभिन्न धार्मिक परंपराओं को एक साथ लाने का प्रयास करता है।
  • साधारण जीवन जीना: कबीर ने साधारण और सरल जीवन जीने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि जीवन की सच्चाई और आध्यात्मिकता केवल साधारणता और ईमानदारी में होती है, न कि बाहरी शो-शा और आडंबर में।
  • गुरु-शिष्य परंपरा को महत्व: कबीर ने गुरु-शिष्य परंपरा को महत्वपूर्ण माना और सच्चे गुरु की भूमिका को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि सच्चे गुरु की शिक्षा से आत्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और जीवन की सच्चाइयों को समझा जा सकता है।
  • सामाजिक और धार्मिक आलोचना: कबीर ने अपने समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाओं की आलोचना की। उन्होंने जातिवाद, धार्मिक कर्मकांड और अन्य सामाजिक कुरीतियों पर तर्कपूर्ण विचार किए और सुधार की दिशा में सुझाव दिए।

कबीर के शिष्य और प्रभाव (Followers and Influence of Kabir)

कबीर के प्रमुख शिष्य

  1. दासु (Dasu): कबीर के प्रमुख शिष्यों में से एक दासु थे, जिन्होंने कबीर की शिक्षाओं को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दासु ने कबीर के विचारों और भजनों को जनमानस तक पहुँचाया और उनके धार्मिक संदेश को फैलाया।
  2. सुखानंद (Sukhanand): सुखानंद भी कबीर के प्रमुख शिष्यों में से थे। उन्होंने कबीर की भक्ति को अपनाया और उनकी शिक्षाओं को फैलाने में योगदान दिया। उनका जीवन और कार्य कबीर की शिक्षाओं के प्रति समर्पित था।
  3. कबीर पंथ के आचार्य: कबीर (Kabir Das Ka Jivan Parichay) के समय के बाद, उनके शिष्य और अनुयायी कबीर पंथ के आचार्यों के रूप में सामने आए। इन आचार्यों ने कबीर की शिक्षाओं को संरक्षित किया और उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में फैलाया।

कबीर का प्रभाव

  1. भक्ति आंदोलन पर प्रभाव: कबीर का सबसे बड़ा प्रभाव भक्ति आंदोलन पर पड़ा। उनकी शिक्षाओं ने भक्ति आंदोलन को एक नई दिशा दी और इसने भारतीय समाज में धार्मिक एकता और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया।
  2. संत कवियों पर प्रभाव: कबीर ने अपने समय के संत कवियों को गहरा प्रभावित किया। उनके विचार और कविताएँ अन्य संत कवियों, जैसे कि मीरा बाई और तुलसीदास, पर भी प्रभावशाली थीं और उनके साहित्यिक कार्यों में झलकती हैं।
  3. भक्ति साहित्य पर प्रभाव: कबीर की कविताएँ और भजनों ने भक्ति साहित्य को नया आयाम दिया। उनकी सरल, सटीक और प्रभावशाली भाषा ने भक्तिरस को जनता के बीच लोकप्रिय बनाया और भक्ति साहित्य की परंपरा को समृद्ध किया।
  4. सामाजिक सुधार पर प्रभाव: कबीर ने जाति, धर्म और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। उनके विचारों ने समाज में सुधार की दिशा में प्रेरणा दी और सामाजिक समरसता की ओर अग्रसर किया।
  5. आध्यात्मिक परंपराओं पर प्रभाव: कबीर की धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षाओं ने भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं को समृद्ध किया। उनकी निर्गुण भक्ति और आत्मज्ञान की खोज ने कई धार्मिक विचारधाराओं को प्रभावित किया।
  6. लोकसंगीत और भक्ति गीतों पर प्रभाव: कबीर के भजन और दोहे भारतीय लोकसंगीत और भक्ति गीतों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए। उनके भजन आज भी विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में गाए जाते हैं।

कबीर की मृत्यु और विरासत (Death and Legacy of Kabir)

कबीर की मृत्यु:

कबीर दास का जीवन भक्ति और साधना में व्यतीत हुआ। उनके जीवन के अंतिम दिनों के बारे में विभिन्न मान्यताएँ हैं, लेकिन अधिकांश स्रोतों के अनुसार, कबीर की मृत्यु 15वीं शताब्दी के अंत या 16वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई थी। कबीर की मृत्यु की परिस्थितियाँ भी विशेष रूप से उनकी भक्ति और शिक्षाओं के अनुसार विशिष्ट थीं।

  • मृत्यु की मान्यता: कुछ मान्यता है कि कबीर (Kabir Das Ka Jivan Parichay ) की मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद हुआ। उनके अनुयायियों ने दावा किया कि उनका शव उनके प्रिय भक्तों के बीच बांटा जाना चाहिए, जबकि अन्य लोगों ने यह दावा किया कि शव को विशेष सम्मान से दफन किया जाए। इस विवाद के परिणामस्वरूप कबीर के शव को कबीर के अनुयायियों द्वारा दफन किया गया और उनके शव के स्थान पर फूल रख दिए गए।

कबीर की विरासत:

  1. कबीर पंथ की स्थापना: कबीर की मृत्यु के बाद, उनके अनुयायियों ने कबीर पंथ की स्थापना की, जो एक धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। कबीर पंथ ने उनकी शिक्षाओं और भक्ति परंपरा को संरक्षित किया और इसे विभिन्न क्षेत्रों में फैलाया।
  2. भक्ति आंदोलन में योगदान: कबीर की शिक्षाएँ भक्ति आंदोलन की महत्वपूर्ण धारा बन गईं। उनकी निर्गुण भक्ति और सच्चे प्रेम की अवधारणा ने भक्ति आंदोलन को समृद्ध किया और भारतीय धार्मिक परंपराओं को नया आयाम दिया।
  3. साहित्यिक योगदान: कबीर की कविताएँ, दोहे, और भजन आज भी भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी सरल और प्रभावशाली भाषा ने भक्ति साहित्य को जनमानस में लोकप्रिय बनाया और उनके साहित्यिक योगदान को अमर बना दिया।
  4. सामाजिक सुधारक की भूमिका: कबीर ने जाति, धर्म, और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। उनकी शिक्षाओं ने समाज में सुधार की दिशा में प्रेरणा दी और सामाजिक समरसता की ओर अग्रसर किया।

Freqently Asked Questions (FAQs)

1. कबीर दास कौन थे?

कबीर दास एक प्रसिद्ध भारतीय भक्ति संत और कवि थे, जिन्होंने 15वीं सदी में जीवन बिताया। वे अपनी भक्ति कविताओं और दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं, जिनमें धार्मिक और सामाजिक सुधार के संदेश हैं।

2. कबीर का जन्म कब और कहां हुआ?

कबीर का जन्म 1398-1448 के बीच उत्तर प्रदेश के वाराणसी (बनारस) में हुआ था।

3. कबीर के गुरु कौन थे?

कबीर ने गुरु रामानंद से शिक्षा प्राप्त की। हालांकि कबीर की शिष्य परंपरा में अन्य गुरु भी शामिल थे, जैसे कि निजामुद्दीन औलिया और अन्य।

4. कबीर की प्रमुख धार्मिक मान्यताएँ क्या थीं?

कबीर ने जाति और धर्म के भेदभाव का विरोध किया। वे निर्गुण भक्ति के समर्थक थे और अंधविश्वास तथा धार्मिक कर्मकांडों के खिलाफ थे।

5. कबीर के प्रमुख दोहे क्या हैं?

कबीर के प्रसिद्ध दोहे में से कुछ हैं:

“डूबा सागर में मछली, हम कहां खुदेगा पानी।”
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई।”

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